International Women’s Day Speech इन हिन्दी | महिला दिवस पर निबंध | महिला सशक्तिकरण पर निबंध

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर भाषण

International Women’s Day Speech  इन हिन्दी | अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर भाषण 

इस लेख में हम आपको अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस ( International women’s day Speech इन हिन्दी) के दिन के महत्व के बारे में बतायेगें। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस प्रत्येक वर्ष 08 मार्च का मनाया जाता है।

सर्वप्रथम मै आपका ध्यान इस बात पर केन्द्रित करना चाहता हूँ कि विश्व में इस दिवस को मनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी। ऐसी क्या परिस्थितियाँ थी जिस कारण महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ना पड़ा।

हम सब जानते हैं कि विश्व में कुछ विकसित देशों को छोड़कर, अन्य सभी देशों में महिलाओं की स्थिति क्या है। अगर हम विकासशील देशों की बात करें तो आज भी महिलाओं को समाज में समानता का दर्जा नही दिया जाता है।

International Women’s Day Speech इन हिन्दी | महिला दिवस पर निबंध | महिला सशक्तिकरण पर निबंध

International Women's Day Speech इन हिन्दी

समाज में महिलाओं को समानता का दर्जा, महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना व महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने के लिए विश्व स्तर पर महिला दिवस मनाने का निर्णय लिया गया।

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरूआत  एक सदी पूर्व एक समाजवादी आंदोलन के माध्यम से हुई थी जो कि एक श्रम आंदोलन से उपजा था।

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुरूआत वर्ष 1908 में तब हुई थी जब न्यूयार्क की सड़को पर महिलाएं अपने अधिकारो की मांग के लिए उतरी थी।

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को विश्व स्तर पर मनाने का प्रस्ताव क्लारा जेटकिन का था, उन्होने साल 1910 में यह प्रस्ताव रखा था और इसके उपरांत सर्वप्रथम 1911 में  ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विटजरलैंड में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया।

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को औपचारिक रूप से मान्यता वर्ष 1996  में प्रदान की गई थी। प्रथम वार संयुक्त राष्ट्र द्वारा इसे अतीत का जश्न भविष्य की योजना थीम के साथ शुरू किया गया।

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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2023 की थीम,  डिजिटऑलः लैगिंक सामनता के लिए नवाचार और प्रौधोगिकी ( DigitALL: Innovation and Technology for gender equality) है। इस थीम का आशय है लैगिंक समानता के लिए सभी को नवाचार और प्रौधोगिकी के समान अवसर प्रदान करना।

प्राचीन काल भारतीय महिलाओं का स्वर्णिम काल था, प्राचीन काल में पुरुष प्रधान व्यवस्था होने के बावजूद महिलाओं को समाज में सम्मान था, प्रतिष्ठा थी और उन्हें आगे बढ़ने की पूर्ण स्वतंत्रता थी।

महिलाएं अपने आध्यात्मिक ज्ञान और प्रतिभा से  समाज को यह बताने में सक्षम हुई कि वे पुरुषों से किसी भी स्तर पर कम नहीं है।  परंतु मध्यकाल में स्थित उतनी सुखद नहीं रही बल्कि मध्यकाल में महिलाओं की प्रगति अवरूद्ध  रही ।

ब्रिटिश काल की सामाजिक राजनीतिक चेतना का असर हालांकि महिलाओं पर भी पड़ा लेकिन प्रगति कोई खास नहीं हुई ।  इसका कारण यह था कि सरकार ने इस और कुछ खास ध्यान नहीं दिया।

 स्वतंत्रता के बाद सरकारों, महिला संगठनो, महिला आयोगों आदि के प्रयास से महिलाओं के लिए विकास के द्वार खुले। महिलाओं शिक्षित हुई, जिससे उनके अन्दर आत्मविश्वास बढ़ा और आज महिलाएं राजनीति, शिक्षा, पत्रकारिता, साहित्य, उधोगों, तकनीक, मेडिकल आदि जैसे कई क्षेत्रों में पुरूषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चल रही हैं।

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International Women's Day Speech इन हिन्दी

एक तरफ तो यह दृश्य मन को बहुत उत्साहित करता है परन्तु दूसरी तरफ लाखों महिलाएं शोषण और उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं।

भारत जैसे देश में जहां बहुत सारे परिवार गरीबी के कारण अपना पालन पोषन मजदूरी करके करते हैं , ऐसे परिवारों में महिलाओं को भी बाहर निकलकर मजूरी करनी पड़ती है।

इतना ही नही, जब यह महिलाएं घर से बाहर निकलती है तो इनका शोषण होता है और ये महिलाएं समान कार्य करने के बावजूद समान वेतन प्राप्त नही कर पाती।

यह सत्य  है कि सबसे पहले स्त्री ने ही पुरुष को घर बनाकर रहने की प्रेरणा दी,  लेकिन आज उसी घर में स्त्री को शारीरिक, मानसिक,  भावनात्मक आदि विभिन्न रूपों में घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है।

परिणाम स्वरूप स्त्री का अस्तित्व न केवल परिवार में बल्कि परिवार के बाहर भी कमजोर हुआ है।  यही नहीं घरेलू हिंसा बच्चों पर भी गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालती है इसका परिणाम यह होता है कि बच्चे  असामाजिकता की ओर उन्मुख हो जाते हैं क्योंकि परिवेश अपना असर छोड़ने बिना नहीं रहता।

एक सर्वेक्षण में 50% महिलाओं द्वारा वैवाहिक जीवन में किसी प्रकार की हिंसा की बात स्वीकार की गई है। ऐसे मामले मामले न्यायालय तक नहीं पहुंच पाते हैं क्योंकि पति पत्नी के बीच तकरार को निजी माना जाता है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 40% विवाहित महिलाओं को इसलिए प्रताड़ित किया जाता है कि उनके द्बारा पकाय हुआ भोजन या उनके द्वारा किया गया काम परिवार के लोगों को पसंद नहीं आया।

खुद महिलाओं की सोच में इन बातों का असर इतना ज्यादा है कि वह कई बार खुद हिंसा का समर्थन करने लगती हैं।

लेकिन इन घटनाओं का असर उनके मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ता है।  समाज में आज भी सर्वाधिक उत्पीड़न विधवाओं का हो रहा है।

युवा विधवाओँ को अनेक प्रतिबंधो में जीना पड़ा है और  यदि वह कामकाजी महिला है तो उसके चरित्र पर कीचड़ उछालने देने में लोगों को जरा भी संकोच नहीं होता।

विधवा महिलाओं में बेसहारा महिलाओं को यदि रोजगार  नहीं मिलता तो कई बार वे कई बार गलत और अनैतिक कार्य करने को विवश हो जाती हैं और जो ऐसा नहीं कर पाती है परेशान होकर आत्महत्या का रास्ता बना लेती ।

आजादी के बाद भारतीय महिलाओं ने अपने विकास में काफी प्रगति की है और भारतीय समाज के निर्माण में महती भूमिका अदा की है।

इसके बावजूद पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता और स्त्री की पूर्व में दलितों जैसी स्थिति ने अभी भी दयनीय स्थिति बरकरार रखी है।

यही नहीं मानसिक विकास की वर्तमान अवस्था में भी लड़कियों के पालन पोषण में भेदभाव बरता जाता है। कठोर कानूनों के बावजूद आधुनिक उपकरणों की सहायता से गर्भस्थ शिशु की लिंग पहचान करके कन्या भ्रूण की हत्या की जा रही है और दहेज रूपी दानव जाने कितनी महिलाओं को अपना शिकार बना रहा है।

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इस तरह की कुछ बातें न सिर्फ महिला सशक्तिकरण की दिशा में चल रहे प्रयासों को कमजोर कर रही है बल्कि राष्ट्र के भविष्य निर्माण में भी बाधा उत्पन्न कर रही है। 

वस्तुतः सशक्तिकरण का अभिप्राय ही  सत्ता प्रतिष्ठानों में महिलाओं की साझेदारी से है।  यह दुख की बात है कि आज भी लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी 20% से ज्यादा नहीं है जबकि आबादी में उनकी संख्या करीब 50% है हालांकि सवाल यह भी उठता है कि लोकसभा और विधानसभा में अलग से आरक्षण देना उनके उत्कर्ष में कितना सहायक होगा।

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यह सर्वविदित है कि आरक्षण से लाभार्थियों का सामुदायिक विकास जरूर हुआ लेकिन उनके दायरे में भी कुछ समृद्धि के टापू तैयार हो गए और यह लोग अपने ही समुदाय से कटे हुए हैं।

आरक्षण के माध्यम से स्त्री सशक्तिकरण की अवधारणा ऊपर से आकर्षक जरूर लगती है परन्तु इससे महिलाओं के उत्थान में लाभ मिलेगा यह नही कहा जा सकता।

अतः आरक्षण को समस्या के समाधान के हथियार के रूप में लेने के बजाय उसे मुख्यधारा में लाने का उपाय  मात्र समझना ही बेहतर है।

ज्यादा अच्छा यह होगा कि स्त्रियों को वस्तुनिष्ठ तौर पर ऐसी सुविधाएं दी जाएं जिनके सहारे वे अपने  व्यक्तित्व का स्वेच्छा से निर्माण कर सकें।  उनके स्वास्थ्य,  शिक्षा और आजीविका के लिए यदि अधिक से अधिक सहायता मिले तो वे अपनी सृजनशीलता से क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती हैं।

अभी तो उनकी खुद की समस्या यह है कि उनके व्यक्तित्व पर पुरुष वर्चस्व के कारण जो कृत्रिम सामाजिक व्यक्तित्व आरोपित है,  उसी से वे पूरी तरह अपने को बचा नहीं पा रही हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि स्त्री उस मुखौटे को उतार फेंकें जो उसे उसकी इच्छा के विरूद्ध पहनाया गया  और बाद में जिसे वे स्वाभाविक समझने लगी ।

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चीन में लोहे के जूते पहनाकर स्त्री के पांव छोटे कर दिए जाते थे।  अर्थात् विश्व के हर समाज में लोहे के सांचे में  जकड़कर स्त्री के व्यक्तित्व को वौना बना दिया गया और स्त्री इसी बौनेपन को अपना गुण समझने लगी। अतः इस मानसिकता से मुक्ति जरूरी है, तभी सशक्तिकरण वास्तविकता अर्थों में दिखेगा।

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